Sunday, October 4, 2009

मध्यवर्ग पर चौतरफा मार के बीच
सादगी का ढकोलसा सोनिया गांधी का
किरण पटनायक
बीपीएल को गरीबी से ऊपर उठाने के लिए केंद्र सरकार ने न जाने कितनी ही योजनाएं चालू कर रखी है, तो दूसरी ओर मध्यवर्ग को महंगाई और बेरोजगारी के जरिए तेजी गरीब श्रेणी में पहुंचाया जा रहा है। और इन सब के बीच केंद्र सरकार ने शुरू किया सादगी का नौटंकी। हालांकि कुछ लोग इसे नौटंकी नहीं, बल्कि एक अच्छी परंपरा मनवाने को तूले हुए हैं।
सोनिया गांधी जब कभी एक तरफ से कमजोर पडूने लगती हैं, तब वे कोई न कोई हथकंडा अपना कर दूसरी ओर से मजबूत बनने यानि दिखने के प्रयास में जुट जाया करती हैं। हालांकि सोनिया गांधी के इस सादगी अभियान की सराहना होनी ही चाहिए। मगर इसके पीछे छिपे मनोविज्ञान को समझना भी उतना ही जरूरी है। खुद की असफलताओं को छिपाने के लिए कांग्रेस और उसकी अध्यक्ष हर बार नए-नए तरीके खोज निकाला करती हैं। इन्हीं में से एक है खर्च कम करने का अभियान।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के इशारे पर वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने सरकारी खर्चे में दस फीसदी कटोती का अभियान चलाया हुआ है। मसलन; सस्ती हवाई यात्रा, सहायकों के यात्रा भत्ते में कटौती, विदेश यात्रा पर लगाम, पांच सितारा होटलों में बैठकों पर रोक, संसदीय बैठक दिल्ली में ही करना; फर्नीचर, कार, फोन, सरकारी कारों में ईंधन आदि में कटौती। इसके अलावा दैनिक भत्ते, आकस्मिक भत्ते, पानी-बिजली में कटौती, फर्स्ट क्लास या एसी में यात्रा पर रोक आदि की भी शुरूआत हो रही है। सोनिया गांधी ने इकोनॉमी क्लास में मुंबई की हवाई यात्रा करके वाहवाही लूट ली। उधर राहूल गांधी ने ट्रेन के कुर्सीयान में दौरा करके सुर्खियां बटोर ली।
अय्याशी का जीवन जीनेवाले अधिकांश कांग्रेसी सांसद -मंत्रियों को पहले यह प्रस्ताव नागवार लगा। एसएम कृष्णा, कमलनाथ, प्रफुल्ल पटेल, शशि थरूर, आनंद शर्मा, शरद पवार आदि अनेक कांग्रेसी-संप्रग मंत्रियों-सांसदों ने इसका खुलेतौर पर विरोध किया। सरकारी आवास नहीं मिलने के कारण कृष्णा, थरूर जैसे मंतत्रियों ने पांचसितारा होटलों को अपना आवास बनाया। आपत्ति होने पर कहा गया कि वे अपनी जेब से खर्च उठा रहे हैं। यानि कांग्रेसी सांसद-मंत्री ऐसे करोड़पति हैं कि वे महीनों वर्षों पांच सितारा होटलों का खर्च वहन कर सकते हैं। गौरतलब है कि कांग्रेस के सौ से अधिक सांसद-मंत्री करोड़पति है। ऐसे लोग भला आम जनता के सुख-दुख क्या जाने? इनके और इनके रिश्तेदारों के पास इतना धन आया कहां से? इन बड़ी मछलियों पर प्रधानमंत्री की सीबीआई का ध्यान क्यों नहीं जा रहा है? इसके मूल में जाकर जांच करने की जरूरत है। क्या ऐसे ही कांग्रेसी नेताओं के अरबों-खरबों रूपए स्वीसबैंक में जमा हैं? क्या इसी कारण कांग्रेसी सरकार स्वीसबैंक पर दबाव नहीं बना पायी?
बहरहाल, जब मंत्री, सांसद, विधायक, अधिकारी, व्यापारी, उद्योगपति देश को लूटने में जुटे हुए हैं; तब सरकारी खर्चों में कमी लाने की यह मुहिम तपते रेगिस्तान में किसी नखलिस्तान जैसी शीतलता प्रदान करती है। मन को सांत्वना मिलती है कि इस सूखी-बंजर मरूभूमि में कहीं कोई तो है खजूर का पेड़। सोनिया गांधी का यह प्रयास वाकई खजूर या अरेड़ी के पेड़ सरीखा ही है। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। जब केंद्र सरकार मूल्यवृद्धि और बेरोजगारी जैसे सबसे प्रमुख मुद्दों पर पूरी तरह फेल हो चुकी हैँ, तब यह सादगी अभियान एक ढ़कोसला के सिवा और क्या है? भूखे को यह जताना कि तुम्हारी पीड़ा में शरीक होते हुए अब हम भी दो रोटी कम खाएंगे; इससे भूखे की भूख पर क्या फर्क पड़नेवाला है? उसे बची हुई दो रोटी भीख में दे भी दी जाए तो भी उसकी समस्या का स्थाई समाधान तो ‍नहीं निकलनेवाला!
मध्यवर्ग पर चौतरफा मार पड़ रही है। मध्यवर्ग निम्न-मध्यवर्ग में, तो निम्न-मध्‍यवर्ग गरीब की श्रेणी में पहुंचा दिए गए हैं। दो-चार हजार रुपए मासिक पगार पानेवालों की यहां बात हो ही नहीं रही है। वे तो कब के गरीबी रेखा के नीचे धकेले जा चुके हैं। उस पर विडंबना यह है कि उन्हें अब भी बीपीएल श्रेणी का नहीं माना जा रहा है। ऐसे में उन्हें न तो दो-तीन रु. किलो चावल-गेंहू मिल रहे हैं, न रेलवे की छूट, न ही चिकित्सा सुविधा और न ही अन्य घोषित रियायतें। वे न तो घर के रहे और न घाट के। खुला बाजार अब कालाबाजार बन चुका है। और इसी कालेबाजार से उन्हें हर चीज खरीद कर खानी पड़ रही है। सार्वजनिक प्रणाली के मायने बदल चुके हैं। वह भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुका है। उनके घरों में चाय में दूध-चीनी नहीं डाली जा रही है। बल्कि उनके यहां चाय बनती ही नहीं; क्योंकि चायपत्ती भी बहुत महंगी बना दी गयी है। खाने की मजबूरी है इसीलिए सूखी रोटियों के जुगाड़ में ही ‍एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। पराठे-पूरियां तो एक सुहाना सपना भर है। सूखी चपा‍ती के साथ सब्जियां ऐय्याशी बन गयी है। मौसमी सब्जी की कीमत भी दुगुनी हो चुकी है। आलू-प्याज, टमाटर जैसी गरीबों की सब्जी में आग लगा दी गयी हैं। भात-नमक के साथ आलू का भरता-कच्चा प्याज भी फिलहाल गरीबों के नसीब नहीं।
पांच-दस हजार रु. पानेवालों की हालत यहां जा पहुंची है कि उनकी रसोई में एक से ज्यादा सब्जी महीनों से नहीं बन पायी है। एक सब्जी भी घर के हर सदस्यों को पूरी नहीं पड़ती। बच्चों को दूध नहीं मिल पाता तो चीनी की भी खपत खुद-ब-खुद कम हो गयी। दाल, चीनी, चावल आदि का कोटा भी कम कर दिया गया है। घटिया किस्म के चावल ऊंची कीमत देकर खाने पड़ रहे हैं। चावल के शोकीनों को मजबूरन आटे की ओर रूख करना पड़ता है। चावल की तुलना में कम आटे से पेट भर जाता है।
दस-बीस हजार रु. महीना कमानेवालों की हालत ऐसी है कि उनकी थाली में मांस, मुर्गा, मछली, झींगा पहले की तुलना में कम हो गया है। मांसाहारी भोजन की कीमत भी लगातार बढ़ती जा रही है। ऐसे परिवारों के बजट में भी कटौती साफ देखी जा रही है। बीस हजार रु. पगारवाले परिवार में अगर एक छोटी-सी सेकेंडहैंड कार है भी तो महीने में दो-एक बार ही निकालती है। पर्व-त्योहारों में नए कपड़े खरीदने से पहले उन्हें दस बार बजट में काट-छांट करनी पड़ती है।
ऊपर से मध्यवर्ग के हर परिवार में कोई न कोई बेरोजगार या अर्द्ध-बेरोजगारों की फौज बढ़ती ही जा रही है। इनमें कुछ ऐसे बेरोजगार भी हैं जो छंटनी के शिकार बन चुके हैं। एक नई नौकरी पैदा हो रही है तो पांच नए बेरोजगार भी।
कांग्रेसी चाटुकार नरेगा यानि ग्रामीण रोजगार योजना का ढोल पीटने में कलम घिस रहे हैं। मगर सच्चाई यह है कि कहीं भी नरेगा का पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है। इनमें कांग्रेसी राज्य भी शामिल हैं। भ्रष्टाचार की दीमक ऐसी योजनाओं को चाटे जा रही है। भूखी-प्यासी-नंगी जनता के लिए नरेगा एक वरदान बन सकता है। अगर उसे भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त कर दिया जाए। सोनिया गांधी अपने राज्यों में यह काम क्यों नहीं करवा पा रही हैं। यही है लाख टके का सवाल। अगर इरादों में जरा भी ईमानदारी है तो इन राज्यों के भ्रष्ट मंत्रियों, अधिकारियों और अन्य सरकारी नेताओं पर कांग्रेस कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर रही? जवाब दिन के उजाले की तरह साफ है। बिना भ्रष्टाचार के कांग्रेस का अस्तित्व बचा रह पाना संभव नहीं। बल्कि सच तो यह है कि कांग्रेस ही देश के सारे भ्रष्टाचारों की जननी है।
सवाल यह भी है कि देश की करोड़ों ग्रामीण जनता अब तक भूखी-नंगी क्यों है? जबकि 1947 से अब तक केंद्र में लगभग पचास साल तक कांग्रेस का ही शासन रहा। अनेक राज्यों में भी कई दशक तक कांग्रेस ने लगातार शासन किया है और अब भी कर रही है। फिर भी करोड़ों लोग भूखे-नंगे क्यों है? ळनके लिए स्थाई रोजगार का बंदोबस्त क्यों नहीं किया गया। अब भी इसके लिए कोई ठोस योजनाएं क्यों नहीं बन पायी? इसका भी जवाब साफ है। ग्रामीण मजदूरों के सामने नरेगा जैसा स्थाई रोजगार का गाजर लटका कर रखा जाएँ ताकि वे कांग्रेस के बंधुआ वोटबैंक बने रहे। वे स्थाई रूप से बीपीएल बने रहे, इसका पूरा इंतजाम कर रखा है कांग्रेसी सरकार ने। लेकिन उन नए बीपीएलों का क्या होगा, जिन्हें महंगाई-बेरोजगारी ने गरीब बना दिया है? महंगाई और बेरोजगारी इसी तरह बढ़ती रही तो जल्द ही इस देश से 110 करोड़ में नब्बे करोड़ लोग बीपीएल श्रेणी में आ जाएंगे।
महंगाई के लिए केंद्र सरकार बार-बार खाद्यान्न क्षमता में कमी को जिम्मेवार बता रही है। शरद पवार, प्रणव मुखर्जी इनमें सबसे आगे हैं। प्रधानंमत्री ने भी कई बार इस ओर इशारा किया है। लेकिन यह सरासर झूठ है। खुद सरकार के ही आंकड़ों के अनुसार देश में गेंहू-चावल का वर्तमान भंडार 530 लाख टन है, जो कि अगले कई महीनों के लिए पर्याप्त है। फिर भी अनकी कीमत लगातार क्यों बढ़ रही है? इसी तरह चीनी की बढूती कीमत के लिए केंद्रीय कृषि मंत्री कम उत्पादन को जिम्मेवार बता रहे हैं। लेकिन फरवरी-मार्च में जब गन्ने के पर्याप्त उत्पादन की बात की जा रही थी, और चीनी के भंडार में कमी का कोई जिक्र तक नहीं था, उस समय भी चीनी की कीमत 15 रु. से बढ़ते हुए 25 रु. तक क्यों पहुयंच गयी थी? अब तो चीनी के दाम 40-42 रु. तक जा पहुंचे हैं।
सूखे को लेकर केंद्र सरकार सहित सोनिया गांधी बड़ी चिंतित दिखने का प्रयास कर रही हैं। सूखे से लड़ने के लिए कांग्रेसी सांसदों की पगार का 20 फीसदी हिस्सा चंदे में भी लिया जा रहा है। लेकिन केंद्र सरकार सूखे के बहाने महंगाई बढ़वाने में लगी हुई है। मानसून में कमी को भी महंगाई के साथ जोड़ दिया जा रहा है। लेकिन सूखे की मार का प्रभाव सिर्फ चावल के उत्पादन पर ही दिखना चाहिए; वह भी दो-चार महीने बाद। मगर तेल, दाल, सब्जी, अंडे, दूध, मुर्गे के दाम क्यों बढ़ाये जा रहे हैं? साफ है कि केंद्र सरकार अपनी असफलता छिपाने के लिए बहाने पर बहाना खोज रही है।
2008 में मूल्यवृद्धि के लिए अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल कीमतों में इजाफे को जिम्मेवार बताया गया था। लेकिन खनिज तेलों की कीमत तेजी से नीचे आयी, तब भी महंगाई नहीं घटी। इससे मनमोहन सिंह सरकार के झूठ का ही पर्याफाश होता है।
महंगाई दर घटती रही और महंगाई बढ़ती रही। थोक मूल्य और खुदरा मूल्य के सूचकांक का अंतर बहस का मुद्दा बना। थोक मूल्य सूचकांक में आ रही कमी को मनमोहन सरकार अपनी उपलिब्ध बता रही थी। लेकिन खुदरा मूल्य में तेजी हो रहे इजाफा ने सरकार की पोल खोल दी। अतिरिक्त आर्थिक सलाहकार पुष्पा थोट्टन के अनुसार, ‘थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर महंगाई दर का निर्धारण होता है। इसमें आमलोगों के जरूरत की चीजे कम होती है और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर असर डालनेवाली चीजे ज्यादा।’ अर्थशास्त्री रमेश शरण कहते हैं, ‘समस्या को जड़ से समाप्त करने के लिए दुरुस्त आर्थिक नीतियों की जरूरत है। आज खाद्य कुप्रबंधन का खामियाजा आमलोगों को भुगतना पड़ रहा है। पिछले बीस वर्षों में कृषि की उपेक्षा, किसानों को दी जानीवाली सुविधाओं में कमी, लागत खर्चे में वृद्धि, खुदरा कंपनिर्यों और ई-चौपाल के नाम पर अनाज की जमाखोरी की ओर सरकार का ध्यान न देना भी बड़ी वजह है।’
अर्थिक विशेषज्ञ गिरीश मिश्र का कहना है कि महंगाई रोकने के लिए सरकार को तुरंत जमाखोरी पर नियंत्रण करना चाहिए। खाद्य पदार्थों के उचित वितरण के लिए सही नीति बनानी चाहिए। सार्वजनिक खाद्य वितरण प्रणाली को चुस्त-दुरुस्त करना पड़ेगा।
ऐसे वक्त जब सोनिया गांधी की केंद्र सरकार महंगाई और बेरोजगारी जैसे अहम मुद्दों पर सरासर फेल हो चुकी है तो मंत्रियों-सांसदों के खर्च मेय कटौती करने की उनकी मुहिम एक ढकोसला ही तो है। इसके जरिए वे महज अपनी छवि सुधारना चाहती है जो कि दिन-प्रतिदिन मलिन होती जा रही है। देश की बड़ी-बड़ी समस्याओं पर पर्दा डालने के लिए ऐसे टुटपूंजिए कामों से तात्कालिक लाभ भले ही मिल जाए, मगर स्थायी लाभ नहीं मिलनेवाला। आम जनता इतनी मूर्ख नहीं। (समाप्त)